भारत भूमि हमेशा से ऋषि-मुनियों और महापुरुषों की जन्मस्थली रही है। इन्हीं दिव्य आत्माओं में से एक थे परम पूज्य सद्गुरुदेव डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली जी, जिन्हें दुनिया परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के नाम से भी जानती है। उन्होंने अपने जीवन को पूरी तरह मानवता की सेवा, आध्यात्मिक ज्ञान के प्रचार और मंत्र–तंत्र–यंत्र विज्ञान के पुनर्जागरण के लिए समर्पित कर दिया।
जन्म और बाल्यकाल
21 अप्रैल 1933 को राजस्थान के जोधपुर ज़िले में एक साधारण से परिवार में डॉ. श्रीमाली जी का जन्म हुआ। माता रूपा देवी और पिता पंडित मूलचंद श्रीमाली को यह दिव्य संतान प्राप्त हुई। जन्म के बाद से ही उनके जीवन में कई चमत्कारी घटनाएँ घटने लगीं। कहा जाता है कि जन्म के 27वें दिन एक विशाल नाग ने उनके सिर पर फन फैलाकर आशीर्वाद दिया। यह घटना स्पष्ट करती है कि वे साधारण मनुष्य नहीं बल्कि एक दिव्य आत्मा थे।
बचपन से ही उनका रुझान वेद, पुराण और उपनिषदों की ओर था। कम उम्र में ही उन्होंने सैकड़ों श्लोक कंठस्थ कर लिए और ध्यान–समाधि में लीन रहने लगे। गाँव के लोग उन्हें “संत बालक” कहकर पुकारते थे।
अद्वितीय साहस और करुणा
एक प्रसंग उनके व्यक्तित्व को उजागर करता है। एक बार गाँव में एक मकान में आग लग गई, जिसमें एक बच्चा फँस गया। कोई भी आग में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर पाया, लेकिन छोटे नारायण ने अपनी जान जोखिम में डालकर उस बच्चे को बाहर निकाला। इस साहसिक घटना ने साबित कर दिया कि उनका जीवन केवल अपने लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए था।
तपस्या और ज्ञान की खोज
युवावस्था में ही उनका मन सांसारिक जीवन से हटकर आध्यात्मिक साधना की ओर अग्रसर हुआ। उन्होंने हिमालय की कठिन यात्राएँ कीं और अनेक सिद्ध योगियों व महात्माओं से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने मंत्र, तंत्र, योग, सम्मोहन, ज्योतिष और आयुर्वेद का गहन अध्ययन किया।
इस दौरान उनका संपर्क महान संत स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज से हुआ। यही उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था। गुरुदेव ने सिद्धाश्रम में प्रवेश पाया और वहाँ से आध्यात्मिक ज्ञान का दिव्य वरदान लेकर संसार में लौटे।
गृहस्थ जीवन और साधना
यद्यपि उन्होंने संन्यास का मार्ग चुना था, फिर भी बाद में वे गृहस्थ जीवन में लौटे और माता भगवती देवी श्रीमाली के साथ रहते हुए भी साधना व शोध कार्य जारी रखा। उन्होंने यह सिद्ध किया कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी साधना और आध्यात्मिक उत्थान संभव है।
मंत्र तंत्र यंत्र विज्ञान का पुनर्जागरण
गुरुदेव ने अपने लेखन और प्रवचनों के माध्यम से मंत्र तंत्र यंत्र विज्ञान को पुनर्जीवित किया। उन्होंने कठिन संस्कृत ग्रंथों के सिद्धांतों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया, ताकि आम व्यक्ति भी उनसे लाभ उठा सके।
उनकी मासिक पत्रिका “मंत्र तंत्र यंत्र विज्ञान” आज भी अध्यात्म जगत में एक अमूल्य धरोहर मानी जाती है। इसके साथ ही उन्होंने सिद्धाश्रम साधक परिवार की स्थापना की, जिसके माध्यम से असंख्य साधकों को वास्तविक साधना का मार्ग मिला।
शिक्षा और उपलब्धियाँ
डॉ. श्रीमाली जी ने राजस्थान विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. और जोधपुर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष भी रहे। साथ ही उन्होंने ज्योतिष, आयुर्वेद, सम्मोहन, योग और पराविज्ञान पर 120 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जो आज भी साधकों के लिए मार्गदर्शक हैं।
भारत और विदेशों में उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए –
- 1982 – राष्ट्रपति डॉ. बी.डी. जत्ती ने “महामहोपाध्याय” की उपाधि दी।
- 1988 – उज्जैन मंत्र संस्थान से “मंत्र शिरोमणि” सम्मान।
- 1992 – मॉरीशस के प्रधानमंत्री द्वारा “जगतगुरु” की उपाधि।
अंतिम समय और दिव्य उपस्थिति
3 जुलाई 1998 को उन्होंने अपने शरीर का त्याग किया। लेकिन आज भी उनके साधक ध्यान और साधना के दौरान उनके दर्शन और मार्गदर्शन का अनुभव करते हैं। उनका संदेश था –
“मैं चाहता हूँ मेरे शिष्य दीपक न बनें, बल्कि सूर्य बनें – आप सूर्य भवः!”
निष्कर्ष
परम पूज्य डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली (परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी) केवल भारत ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए अवतरित हुए थे। उन्होंने अपने जीवन से सिद्ध कर दिया कि सच्चा संत वही है जो समाज में रहते हुए भी मानवता की सेवा करे और लोगों को आत्मज्ञान के मार्ग पर ले जाए।
उनकी शिक्षाएँ, लेखन और साधना आज भी लाखों साधकों का मार्गदर्शन कर रही हैं। वे केवल एक गुरु नहीं बल्कि युगपुरुष थे, जिनकी दिव्यता आने वाली पीढ़ियों तक प्रकाश फैलाती रहेगी।
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